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परम पूज्य सदगुरुदेव महामंडलेश्वर स्वामी संतोषानंद देव जी, अवधूत मण्डल आश्रम के वर्तमान पीठाधीश एंव अध्यक्ष हैं। स्वामी संतोषानन्द देव जी का जन्म प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग बाबा काशी विश्वनाथ जी की नगरी वाराणसी के निकट एक छोटे से गांव में हुआ। इनकी धर्मपरायण माता चंद्रावती देवी तथा पिता ईश्वर चंद को स्वामी जी के माता-पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके माता-पिता ने इनका नाम संतोष रखा। किसी ने स्वप्न में भी सोचा नहीं था की यह बालक भविष्य में आध्यात्मिक गुरु के रूप में पुरे भारत में प्रसिद्ध होगा, बल्कि परिवार के सदस्य तो चाहते थे की वह अच्छी शिक्षा ग्रहण कर किसी गरिमामय सरकारी पद पर आसीन हो। सम्पन्न परिवार होने के कारण किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। परंन्तु बचपन में, जंहा अन्य बच्चो को पढ़ाई-लिखाई के अलावा खेल-कूद तथा शरारत-मस्ती में रूचि थी, वंही स्वामी जी को धार्मिक एंव आध्यात्मिक प्रवृतियों में ज्यादा में ज्यादा रूचि थी। किसी अज्ञात कारणवश स्वामी जी परिवार के किसी सदस्य को बताये बिना ही दो बार ग्रह-त्याग करके हरिद्वार चले आये थे, लेकिन माता-पिता के आग्रहवश ये वापस घर लौट गए। बाद में स्वामी जी अपने सामाजिक जीवन के लिए महानगर कोलकत्ता चले गए, फिर एक रत स्वप्न में उन्हें आभास हुआ की कोई सिद्ध संत उन्हें जल्दी मिलने वाले है।

उसी समय, स्वामी जी की परमपूज्य सद्गुरु महामंडलेश्वर स्वामी सत्यदेव जी से भेंट हुई, जो कलकत्ता में धार्मिक एंव आध्यात्मिक कार्य के लिए पधारे हुये थे। स्वामी जी ने क्षणमात्र में बसंत पंचमी के दिन सन्यास लिया और स्वामी सत्यदेव जी महाराज के शिष्य बने तथा स्वामी सन्तोषनंद देव के नाम से प्रसिद्ध हुए।

उसके बाद, स्वामी सत्यदेव जी महाराज की आज्ञा से, स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति तथा हिन्दुत्व के प्रचार-प्रसार हेतु पुरे भारत की साईकिल से यात्रा की। यह साईकिल-यात्रा नौ मास तक चली थी। इसी साईकिल-यात्रा के दौरान स्वामी जी ने भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन किये तथा उनका आशीवार्द प्राप्त किया। बाद में स्वामी जी ने हिमालय की पर्वतमाला में बहुत कठिन और पीड़ादायक तपस्या की। हिमालय का पर्यावरण (जैसे की बर्फ-वर्षा, ठंडे पानी की भारी वर्षा, बेहद ठंड वातावरण) के कारण यह तपस्या बहुत-कठिन और पीड़ादायक थी। स्वामी जी ने अत्यंत कठिन धार्मिक-स्थल जैसे की कैलाश पर्वत, मानसरोवर, अमरनाथ, अमर-कंटक आदि तीर्थो की यात्रा की तथा उनको इन कठिन धार्मिक स्थलो पर तपस्या करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने अनेक धर्मिक स्थल जैसे की बाबा विश्व नाथ जी काशी, बाबा बैजनाथ जी बिहार, सोमनाथ जी तथा नागेश्वर जी गुजरात माता वैष्णो देवी, माता ज्वाला जी, माता महाकाली कलकत्ता आदि में बहुत यज्ञ और अनुष्ठान किये।
Swami-Santoshanand-Dev-Ji-Maharaj
स्वामी जी श्री राम भक्त हनुमान जी के महान भक्त है। वैसे तो वे हिन्दू धर्म के सभी देवी-देवताओं में विश्वास रखते है लेकिन भगवान हनुमान जी में उनकी अगाध श्रध्दा तथा अचल विश्वास सराहनीय है। हिमालय के चारधाम में से एक प्रसिद्ध धाम बद्रीनाथ में स्वामी जी ने दीर्घ काल तक बिना अन्न ग्रहण किये भगवान हनुमान जी की तपस्या की। उनकी यह कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान हनुमान जी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिये। भगवान हनुमान जी उन्हें अमूल्य भेंट स्वरूप में वाणी-सिध्दि प्रदान की और अपने गुरु-स्थान अवधूत मण्डल आश्रम में जाकर सेवा करने का आदेश दिया। अपने महान आदरणीय भगवान हनुमान जी का आदेश मानते हुए स्वामी सत्यदेव जी के दिशा-निर्देश अनुसार तपस्या यज्ञ, अनुष्ठान, आश्रम-सेवा करने लगे।

स्वामी जी के सद्गुरु स्वामी सत्यदेव जी अपने कार्यकाल में आश्रम का कार्यभार स्वामी संतोषानंददेव जी को सौंप कर अपना अधिक से अधिक समय हिमालय की पवित्र श्रंखलाओं में स्थित पवित्र तीर्थ स्थानों जैसे पंच केदार जी (श्री केदारनाथ जी, श्रीमदमहेश्वर जी, श्री ध्यान बद्री जी, श्री योग बदरी जी), संतोपंत (यंहा पर पांडवो ने यात्रा की और वंहा से लुप्त हो गए थे) में बिताया और वंहा कठिन तपस्या की। दिनांक 7 मई, 2004 को एक आकस्मिक ह्रदय विदारक घटना घट गयी। नर-नारायण पर्वत के बीच में स्थित बद्रीनाथ, हिमालय में कठिन तपस्या करते हुए बाल ब्रहाचारी और प्रकांड विद्धान सद्गुरु स्वामी सत्यदेव जी के प्राण केवल 51 वर्ष की आयु में परम कृपालू परमात्मा बद्री विशाल भगवान के तेजपुंज में समा गये थे। इस शून्यकाल के समय में अवधूत मण्डल आश्रम के सभी न्यासकारो (ट्रस्टियों) तथा अनुयाइयों ने स्वामी संतोषनंददेव जी महाराज को महंत एंव अध्यक्ष पद का कार्यभार सौंप दिया।

दिनांक 23 मई 2004 को स्वामी जी ने अवधूत मण्डल आश्रम के सभी संतो और भक्तो के अनुरोध पर महन्त के रूप में शपथ ग्रहण किया। महन्त का पद धारण करने के पश्यात स्वामी जी बड़े उत्साह पूर्वक, नम्रतापूर्वक तथा शांतिपूर्वक संत-सेवा, गौसेवा, अतिधि सत्कार, आश्रम सेवा आदि करने लगे। स्वामी जी ने अवधूत मण्डल आश्रम हरिद्वार में और 60 कमरे, गोपालधाम में और एक मजिंल, अवधूत मण्डल आश्रम, उत्तर काशी में और एक मजिंल का निर्माण करवाया है।

स्वामी जी की धार्मिक, आध्यात्मिक तथा मानवतावादी प्रवृत्तियां और बड़े विन्रम स्वभाव से शांति तथा सामाजिक उत्थान के प्रयासों को देखते हुए उदासीन बड़ा अखाड़ा (हिन्दू धर्म के महान 13 अखाड़ों में से एक आदरणीय अखाडा) द्वारा उन्हें अपने द्वारा प्रदान की जाने वाली सर्वोच्च पदवी (महामण्डलेश्वर) से सम्मानित किया गया और इलाहबाद के त्रिवेणी-संगम के तट पर आयोजित महाकुम्भ मेले में दिनांक 06/01/2007 को महामण्डलेश्वर के पद से विभूषित किया गया।

वर्तमान में परम पूज्य सद्गुरु जी मानवतावादी प्रवृतियां अपना रहे है। वो आश्रम में ही गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए धमार्थ अस्पताल चला रहे है। वह हमेशा दैवीय आपदाओं जैसे कि बाढ़, भूचाल, भू-स्खलन, सुनामी आदि में आपदाग्रस्त लोगों की मदद के लिए तत्पर रहते है। स्वामी जी कि यह सोच है कि यह सब प्रवृत्तियां भगवान हनुमान जी का आदेश और उनकी सेवा ही है।